मोहर्रम के महीने को क्यों माना जाता है गम का महीना, क्यों रखे जाते हैं ताज़िए और क्यों किया जाता है मातम

लखनऊ, आज 20 जुलाई से मुहर्रम के महीने की शुरुआत हुई है. मुहर्रम का महीना  मुसलमानों के लिए गम का महीना माना जाता है. मुहर्रम के महीने की 10 तारीख को हज़रत इमाम और हज़रत हुसैन की शहादत हुई थी.

इसी को लेकर मुस्लिम समाज इस पूरे महीने को गम के रूप मनाता है.इस महीने होता है मातम मुहर्रम की 10 तारीख को शिया मुस्लिम मातम करते हैं. ताजिए बनाए जाते हैं, फिर उनको कब्रिस्तान में सुपुर्द ए खाक किया जाता है. काले लिबास मुस्लिम महिलाएं और पुरुष पहनते हैं. किसी परिवार में कोई मृत्यु हो जाती है, जिस तरह का माहौल उस परिवार में होता है, मुस्लिम समाज के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को वही माहौल अपने घर रखते हैं.

चूल्हा नहीं जलाते, झाड़ू नहीं लगाते हैं. खाना नहीं बनाते हैं. दूसरे घर से खाना आता है तो ये लोग खाते हैं.इसलिए मनाया जाता है मुहर्रम, बताया जाता है कि लगभग 1400 साल पहले कर्बला की जंग हुई थी. यह जंग हजरत इमाम और हज़रत हुसैन (यह दोनों भाई थे) ने साथ में मिलकर बादशाह यजीद की सेना के साथ लड़ी थी.

बादशाह यजीद इस्लाम धर्म को खत्म करना चाहता था. इस्लाम धर्म को बचाने के लिए यह जंग लड़ी गई और इस जंग के अंत में हजरत इमाम और हज़रत हुसैन की शहादत हो गई थी.जिस दिन इनकी शहादत हुई वह दिन मुहर्रम के महीने की 10 तारिख बताई जाती है, इसलिए हर साल मुहर्रम की 10 तारीख को मातम किया जाता है. वैसे तो मुस्लिम इस मुहर्रम के पूरे महीने को अपने लिए गम का महीना मानते हैं. इस महीने घर में कोई नया कपड़ा नहीं आता, कोई नई चीज़ नहीं आती, टीवी नहीं चलता, सिर्फ नमाज और कुरान की तिलावत की जाती है.पूरे हिंदुस्तान में अलग-अलग जगह ताज़िए बनाए जाते हैं और उनको कब्रिस्तान में ले जाकर सुपूर्द ए खाक करते हैं.

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