नई दिल्ली, आप भी अपनी मोबाइल की स्क्रीन में वीडियो पर वीडियो और रील्स पर रील्स देखकर थक चुके हैं लेकिन आदत से मजबूर हैं. आपको अपनी इस आदत को बदलने पर जल्द से जल्द काम करना चाहिए वरना साइंस की दुनिया में इसे एक बीमारी का नाम दिया जा चुका है.
हावर्ड मेडिकल स्कूल की रिसर्च के मुताबिक रील्स देखते रहने और बनाते रहने वाली दुनिया मास साइकोजेनिक इलनेस यानी MPI की मरीज हो सकती है.
क्या होती है Mass psychogenic illness-
हावर्ड मेडिकल स्कूल की एक रिसर्च के मुताबिक जरूरत से ज्यादा वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्मस पर रहने वाले लोगों में (Mass psychogenic illness) मास साइकोजेनिक इलनेस के लक्षण नज़र आते हैं. ऐसे लोग अक्सर दूसरों के सामने बातचीत करते वक्त टांगे हिलाते रहते हैं. ये एक तरह का हाइपर एक्टिव रेस्पांस है और ये इस बीमारी का पहला लक्षण है.
दूसरी परेशानी है ADHD –
आपने अक्सर देखा होगा कि ज्यादातर लोग किसी वीडियो को लंबे समय तक नहीं देख पाते और दो से तीन मिनट में एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे और चौथे वीडियो पर चले जाते हैं. लगातार ऐसा करते रहने से इंसान का दिमाग किसी भी चीज़ पर अटेंशन के साथ फोकस ना करने का आदी हो जाता है और बेचैन रहता है.
इसके अलावा सोशल मीडिया पर दूसरों के ज्यादा फॉलोअर अपनी पोस्ट पर कम कमेंट्स और लाइक्स ऐसे लोगों को असल दुनिया से दूर कर देते हैं. ऐसे लोग डिप्रेशन के शिकार होते भी देखे गए हैं.
दूसरी बीमारियां –
-नींद की कमी
-सिर दर्द
-माइग्रेन
ये वो बातें हैं जो हर कोई समझ सकता है कि 6-7 इंच की स्क्रीन में तेज़ लाइट में देर तक रहने से लोगों में सिर दर्द और थकान बढ़ रही है. माइग्रेन के मरीजों को तो डॉक्टर रोशनी से दूर रहने की सलाह देते हैं. मोबाइल की रोशनी भी उसमें शामिल है.
लगातार झुककर मोबाइल की स्क्रीन में देखते रहने से गर्दन और कमर का दर्द बढ़ जाता है. सोशल मीडिया इसके लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार है.
न्यूयॉर्क स्पाइन एंड रीहैब सेंटर की ये तस्वीर आपको ये बता सकती है कि आपकी गर्दन जितनी ज्यादा झुकती जाती है. उस पर उतना ही बोझ पड़ता है और लगातार पड़ रहा बोझ रीढ़ की हड्डी की बनावट को परमानेंट तौर पर बदल सकता है यानी बिगाड़ सकता है.
-0 डिग्री पर गर्दन झुकी हो तो रीढ़ की हड्डी को 5 किलो के बराबर वज़न का अहसास होता है
-15 डिग्री पर 12 किलो
-30 डिग्री पर 18 किलो
-45 डिग्री पर 22 किलो और
-60 डिग्री पर 27 किलो वज़न के बराबर बोझ रीढ़ की हड्डी पर पड़ सकता है.
गुजरात के अहमदाबाद की इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी में पिछले वर्ष रील्स देखने की आदतों पर एक रिसर्च की गई. इस सर्वे में 540 लोगों को शामिल किया गया, जिनकी उम्र 18 से 36 साल के बीच थी. रिसर्च का मकसद ये जानना था कि लोग वीडियो पर इतना समय आखिर क्यों लगा रहे हैं. इस रिसर्च के मुताबिक रील्स बनाने से लोगों को –
-मनोरंजन मिलता है यानी रील्स देखने में अच्छा टाइम पास हो जाता है. ऐसे लोगों की संख्या 85% थी
-सेल्फ रिवॉर्डिंग सेल्फ प्रोमोशन. 92 प्रतिशत लोगों को सोशल मीडिया से उपलब्धि यानी Achievement का अहसास पैदा होता है. ये उपलब्धि उन्हें लाइक्स, कमेंट्स और शेयर के तौर पर नज़र आती है.
-Trendiness. 88% लोग ट्रेंड में रहने के लिए यानी आजकल यही चल रहा है वाली रेस में शामिल होने के लिए सोशल मीडिया में वक्त बिता रहे हैं.
-87% लोग अपनी एक्टिविटी यानी अपने वीडियोज़ या तस्वीरें दर्ज करना चाहते हैं ताकि वो उनके पास सुरक्षित यानी सेव्ड रहे.
-87% लोगों के लिए ये ज़िम्मेदारियों और परेशानियों भागने का एक रास्ता यानी Escape है. ऐसे लोगों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा थी.
-कुछ लोग कुछ नया करने या नया देखने की चाहत में रील्स देखते चले जाते हैं . ऐसे लोगों की संख्या 83% थी .
-79% लोग सोशल मीडिया पर कुछ पोस्ट नहीं करते वो केवल दूसरों की पोस्ट इस मकसद से देख रहे हैं कि उनकी ज़िंदगियों में क्या चल रहा है. चाहे वो उनके करीबी हों या सेलिब्रिटी.
हालांकि ऐसे लोग जो जरूरत से ज्यादा समय सोशल मीडिया में ही व्यस्त हैं उन्हें इस रिसर्च में Narcissist की श्रेणी में रखा गया है. ऐसे लोग जिन्हें लगता है कि पूरी दुनिया उन्हीं से प्रभावित है उनकी तारीफ करी है. आसान भाषा में आप ऐसे लोगों को self-obsessed यानी खुद पर ही मोहित कह सकते हैं. केवल एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इंस्टाग्राम पर ऐसे लोगों की संख्या 40% है.
फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और कुछ हद तक यू ट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म्स को यूज़र जेनेरेटिड मीडिया कहा जाता है. ऐसे माध्यम जो कन्जयूमर्स की पोस्ट और वीडियो से ही चल रहे हैं. हम ये नहीं कह रहे हैं कि सोशल मीडिया पर बिल्कुल नहीं रहना चाहिए, लेकिन असली जीवन और वर्चुअल जीवन में संतुलन बहुत जरूरी है. सोशल मीडिया ने कई आम लोगों को शोहरत नाम और पैसा भी दिया है. सोशल मीडिया पर कई स्टार्स अपनी पहचान से बॉलीवुड के स्टार्स को टक्कर दे रहे हैं. कई लोगों का फुल टाइम करियर सोशल मीडिया पर निर्भर है, लेकिन आप खुद से पूछिए क्या आप उन लोगों में से हैं.
रील्स,,पोस्ट्स और वीडियो की दुनिया में अपने फायदे और नुकसान की बैलेंस शीट आप ईमानदारी से तैयार कीजिए. जवाब आपको मिल जाएगा. जब तक आप अपनी इंटरनेट बैलेंस शीट बनाते हैं तब तक आप हमारा ये वीडियो विश्लेषण देखिए जिसमें हम आपको असली दुनिया में वापस लौटने के रास्ते सुझाने में आपकी मदद करेंगे .
रोजाना एक भारतीय औसतन पांच घंटे इंटरनेट पर बिता रहा है. इसमें से लगभग तीन घंटे सोशल मीडिया पर बीत रहे हैं. भारत में पहली सोशल मीडिया प्लेटफार्म के तौर पर 2008 में आर्कुट आया 2014 में इसके बंद होने के बाद पूरा देश फेसबुक पर आ गया अब इंस्टाग्राम ने भी अपनी जगह बना ली. ताजा आंकड़ों के मुताबिक –
-भारत में यूट्यूब देखने वालों की संख्या 46 करोड़ है.
-भारत में फेसबुक के 37 करोड़ यूजर्स हैं.
-भारत में इंस्टाग्राम के 33 करोड़ यूज़र्स हैं जिनकी औसत उम्र 24 वर्ष है.
आपको जानकर हैरानी होगी कि अहमदाबाद की इग्नू की रिसर्च के मुताबिक सोशल मीडिया पर मौजूद 94% लोग वर्टिकल वीडियो ही बनाते हैं क्योंकि रिसर्च ये बताती है कि vertical videos लोगों को ज्यादा देर तक रोक कर रखते हैं और वीडियो देखने वाले को फोन को फ्लिप नहीं करना पड़ता इसलिए horizontal videos कम बनाए जाते हैं. सर्वे के मुताबिक 70% युवा अपना फोन फ्लिप नहीं करना चाहते और ये लोग ऑटो रोटेशन on नहीं करना चाहते. हालांकि ऐसा करने वाला भारत अकेला देश नहीं है.
-दुनिया की कुल आबादी तकरीबन 800 करोड़ है (7.98 बिलियन)
-इसमें इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोग 500 करोड़ हैं। यानी दुनिया में तकरीबन 63% लोगों के पास मोबाइल फोन है (तकरीबन 63%)
-इन 63 प्रतिशत लोगों में से 92% लोग इंटरनेट मोबाइल फोन पर इस्तेमाल कर रहे हैं.
-इस समय पर लगाम लगाने के लिए सोशल मीडिया साइट्स पर रिमाइंडर या डाटा लिमिट सेट करने के विकल्प भी मौजूद होते हैं लेकिन ऐसा करने की इच्छा शक्ति आपको ही लानी होगी.
-इसके अलावा बिना काम की एप्स के नोटिफिकेशन्स को बंद करें.
-सोशल मीडिया के लिए दिन के सबसे खाली समय को तय करके फिक्स कर लें.
-कोई नया शौक यानी हॉबी शुरू करें
-डिनर और लंच के समय फोन का इस्तेमाल बंद कर दें.
– दोस्तों और करीबियों से फेसटाइम या फेसबुक पर नहीं बल्कि फेस टू फेस मिलें.