बच गई बाबा की कुर्सी, योगी के बुलडोजर से हुए संगठन के कई सुरमा धराशाही

नई दिल्ली, उत्तर प्रदेश की सियासत में पैदा हुई हलचल थोड़ी शांत दिख रही है. भाजपा प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी ने जो रिपोर्ट केंद्रीय नेतृत्व को सौंपी थी उसमें सरकार के कामकाज पर सवाल उठाये गये थे.

उधर डिप्टी चीफ मिनिस्टर केशव प्रसाद मौर्य सीएम योगी से आमने सामने का मोर्चा संभाला था और संगठन सरकार से ऊपर जैसे नारे को बुलंद कर बढ़त लेने की कोशिश कर रहे थे. ऐसा लगा जैसे सीएम योगी कि कुर्सी हिल रही है. परोक्ष रूप से प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी ने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का आरोप लगाकर उनका साथ दिया था. कुछ मंत्रियों के कामकाज पर भी सवाल उठाये और इस बाबत एक रिपोर्ट भी केंद्रीय नेतृत्व को सौंपी थी.

योगी भी कहां मानने वाले थे लिहाजा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के सामने ही लखनऊ की बैठक में साफ साफ कह दिया कि अति आत्मविश्वास की वजह से ये स्थिति पैदा हुई. उसी दिन से सूबे में 10 सीटों पर होने वाले उपचुनाव की तैयारियों में जुट गये और बुधवार को मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर सभी सीटों पर मंत्रियों को जिम्मेदारी सौंप दी. एक तरफ प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी और डिप्टी चीफ मिनिस्टर केशव प्रसाद मौर्य दिल्ली में डेरा डाले थे और योगी पूरे फार्म में उप चुनाव की तैयारी कर रहे थे.

4 जून को लोकसभा चुनाव का परिणाम आया था जिसमें भाजपा अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई. यूपी ने दिल्ली का रास्ता रोक दिया लेकिन सहयोगी दलों के सहारे एक बार फिर से नरेंद्र मोदी पीएम बनने में कामयाब हो गये. परिणाम आने के बाद जब पीएम मोदी का फूलों से स्वागत हो रहा था तब जिस अंदाज में मोदी सीएम योगी से मिले थे वो सबको खटकी थी. उसके बाद पीएम मोदी और सीएम योगी जब जब एक दूसरे से मिले बॉडी लैग्वेज बता रही थी कि सब कुछ ठीक नहीं है. सीएम योगी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की अदावत जगजाहिर है. लेकिन योगी तो योगी ठहरे, यूपी में बुरी तरह हारकर भी झुके नहीं बल्कि हार की वजह अति आत्मविश्वास को बता दिया.

अति आत्म विश्वास के पीछे लंबी कहानी है, जब लोकसभा चुनाव के लिए टिकट बांटे जा रहे थे तब कहा जाता है कि योगी ने दिल्ली को एक लिफाफे में 35 नाम भेजे थे कि यदि इन सांसदों को टिकट दिया गया तो जीतना मुश्किल होगा. उसमें फैजाबाद-अयोध्या के तत्काली सांसद लल्लू सिंह का भी नाम था लेकिन कहा जाता है कि भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह ने योगी की सलाह को बिल्कुल भाव नहीं दिया और अपने हिसाब से टिकट दिलवाये. जब नतीजे आये तो 35 में से 27 चुनाव हार गये और उस अयोध्या में हार का सामना करना पड़ा जहां भगवान राम की सदियों बाद प्राण प्रतिष्ठा हुई थी. नड्डा के सामने योगी ने अमित शाह के इसी अति आत्म विश्वास पर तंज कसा था.

ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर मौर्य किसके इशारे पर उछल रहे थे, क्या उन्हें अमित शाह या जेपी नड्डा जैसे नेता का शह प्राप्त था या खुद की महत्वाकांक्षा कुलांचे भर रही थी. वैसे ही जैसे 2022 के चुनाव से पहले उछल रहे थे लेकिन मात खा गये. ठीक उसी तरह एक बार फिर झटकालगा है. प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी भी मौन साध लिये हैं. केशव प्रसाद मौर्य से तो दोबारा केंद्रीय नेतृत्व मिला भी नहीं और बिना मिले ही उन्हें दिल्ली से लखनऊ लौटना पड़ा. अंदर की खबर यह है कि दोनों को ताकीद की गई है कि संगठन और सरकार आमने सामने नहीं दिखनी चाहिए. बयान संयत होकर दें, यानी सीएम योगी को फिलहाल अभयदान मिल गया है.

जिस सीएम योगी से केंद्रीय नेतृत्व की अदावत चल रही हो और सूबे में संगठन बनाम सरकार की लड़ाई वो बचे कैसे? भाजपा के अंदरुनी सूत्रों के मुताबिक पहला कारण यह है कि योगी का वक्त अच्छा चल रहा है, सिर पर उपचुनाव है. लोकसभा चुनाव में लगे झटके से उबरने के लिए 10 सीटों पर होने वाले उपचुनाव को जीतना बहुत जरूरी है. जल्दीबाजी में नेतृत्व परिवर्तन भारी पड़ सकता था. दूसरा बड़ा कारण यह है कि सीएम योगी न सिर्फ यूपी में बल्कि पूरे देश में हिंदूत्व का चेहरा बन चुके हैं, उनकी फैन फालोइंग है. सख्त फैसलों और अड़ियल रूख के लिए जाने जाते हैं लिहाजा एकतरफा फैसला होने पर वह किसी भी हद तक जा सकते हैं. माना जाता है कि बेशक वह आरएसएस की पृष्ठभूमि से नहीं हैं लेकिन उसका आशीर्वाद उन्हें प्राप्त है.

यूपी में भाजपा का मुकाबला सपा से है और सपा के समर्थक काफी आक्रामक हैं, यादव, मुस्लिम के साथ पिछड़ों और दलितों को साधने की चुनौती है. कोई भी नया प्रयोग घातक साबित हो सकता है. केंद्रिय नेतृत्व के पास जो रिपोर्ट पहुंची है उसके मुताबिक राजपूत, पिछड़ों और दलितों की नाराजगी पार्टी पर भारी पड़ी है लिहाजा उसकी प्राथमिकता खोये हुए जनाधार को फिर से साथ लाने, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव जीतने की है न कि योगी को हटाकर नया फ्रंट खोलने की. मोदी-शाह की जोड़ी पर बेशक मनमानी करने के आरोप लगते हों लेकिन राजनीतिक रूप से दोनों काफी परिपक्व हैं और स्थिति की नजाकत को भांपकर फैसले लेते हैं.

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